रविवार, 14 अगस्त 2011

आजादी के मायने - दो विचार

आजादी के मायने दूसरा विचार

भीखू दादा की सुगनी तो कहती है

अपने रेवड को नहीं ले जाउंगी दूर।
...मैदान के पास ही चराउंगी,

भगाऐंगे तो छुप जाउंगी

भेड बकरियों के बीच।

सोचू

जल्‍दी ही सूख जाए

इन हाथ हिलाते बच्‍चों का पसीना

नाचती लडकियों के घुंघुरूओं की छुन छुन

और जब बंटने लगे मिठाई

चुपके शामिल हो जाउं

बच्‍चों की कतार में।

जानती हूं अच्‍छी तरह सबसे अलग लगूंगी

इन छितराये केशों और फटे कपडों में।

दूर भगाऐंगे पौशाक धारी बच्‍चे

और हाथ में डन्‍डा लिये मास्‍टर जी।

पर डटे रहने से, आंखों की याचक द़ष्टि से

करूणा में लिपटे स्‍वरों से

मिल ही जाएगा

एक पूरा लडडू, स्‍वादिष्‍ट।

थोडा दादा को दूंगी

थोडा श्‍यामू को

शेष चबा चबा खाउंगी,

पानी नहीं पीउंगी

जब तक मुह में स्‍वाद रहे

कर कर याद सुस्‍ताउंगी

जश्‍ने आजादी मनाउंगी।

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