रविवार, 9 अक्तूबर 2011

मुखौटा हुआ राम

अट़टाहास करता, मुखौटा हुआ राम,
मन में मुस्‍कुराता, मंद मंद रावण

गर्वित राम पूतले को जला कर
मन में हर्षित रावण को पाकर
परछाईयों का है ये खेल
सीता का अग्नि स्‍नान
फिर छायां जानकी से मेल
असत्‍य फूका जाता है
और मन में सीता को
दर्शाकर जन मानस भी
तो लूटा ही जाता है।
तो फिर इस आभाषित
रावण को भष्‍म करने का
क्‍यूं प्रहसन दोहरातें हो
मन ही मन रावण की
छायां को खीर खिलाते हो।
अब हर मन पर रावण है
राम मुखौटा मन रावण है
जनता नहीं भोली अब
अग्नि अभिसार भूली है
सीता का वो विकार भूली है
राम तुम्‍हारे ही समान
जन मानस क्रिडा कर गया
मुह में राम सभी के है
पर मन में रावण बस गया।

समीक्षा

तुम जल्‍दी क्‍यूं नही आये

आज तो तुम्‍हे फूल लाने थे

चलों में तो यू ही चला लूंगी

तुम्‍हारा बदन तप रहा है ना

में दबा देती हूं हाथ पैर।

थके हारे सवालों के साथ

संवेदनाओं की सिसकियां

और प्रेम की पराकाष्‍ठा।

मस्तिष्‍क के स्‍पदंनों में

शांति में स्‍नेह विचरता है

पर तुम्‍हारा सवालों में

यूं प्रेम का प्रगटिकरण

क्‍यां संगीत सहेजता है।

दिन भर की आपा धापी
में जिदद् की जददोजहद

तपते शरीर को तुम्‍हारा

सलहाना शर्म के साथ

किस चरम पर ले जाएगा

सुकून के साथ एक दर्द

भी तो दे जायेगा ना

मेरे अतंरंग में टंगा

चांद टुकडे होकर बिखरेगा

जो तुम्‍हारी आशक्ति के खूंटे

पर लटका था अब तक

और फिर पूरी रात

सलवटों की उलझ जाएगी

तुम्‍हारी सुकून की नींद के साथ

मेरे बदन का उबाल और

मन का कफयू का सन्‍नाटा

तुम्‍हारे अनजाने में अभिव्‍यक्‍त

इस प्रेम की समीक्षा करेगा

सुबह आने तक