गुरुवार, 21 जुलाई 2011

संभाल

आम की डाली जो तेरे हाथों लगी थी

पके आम खाने के ख्‍वाब के साथ
...
सूख कर कांटा हो गई तेरी याद में
...
में अब भी सींचता हूं उसे
कहीं बाकी हो अब भी तेरी सीरत
पलट कर अपने बेबश कदमों से
पंगल से उतर कर नंगे पाव

पानी का गिलास मेरे सिराहने लाना

मेरे पुरानी खांसी की आवाज सुनकर
अब मैं खांस भी नहीं पाता

कहीं ये डाली जो हरी होगी मेरी उम्‍मीदों में

लडखडाकर दम ना तोड दे

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