आम की डाली जो तेरे हाथों लगी थी
पके आम खाने के ख्वाब के साथ
...
सूख कर कांटा हो गई तेरी याद में
...
में अब भी सींचता हूं उसे
कहीं बाकी हो अब भी तेरी सीरत
पलट कर अपने बेबश कदमों से
पंगल से उतर कर नंगे पाव
पानी का गिलास मेरे सिराहने लाना
मेरे पुरानी खांसी की आवाज सुनकर
अब मैं खांस भी नहीं पाता
कहीं ये डाली जो हरी होगी मेरी उम्मीदों में
लडखडाकर दम ना तोड दे
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